डायरियाँ / सुदर्शन वशिष्ठ
क्यों इकट्ठा करता हूँ मैं डायरियाँ !
कई सालों की डायरियाँ
ख़ाली
निश्चित है अगली भी रहेंगी
ख़ाली।
नये साल में शौक से
खरीदी ज़ातीं डायरियाँ
भेंट की जातीं
रखी जातीं सहेज कर
दुलार से देखा जाता
बाहरी आवरण
भीतरी काग़ज़
उठा उठा कर, देख देख परख कर
रख दी जातीं।
अगले साल
या उससे अगले साल
इनमें करते बच्चे
बेरहमी से रफ वर्क।
कुछ लोग थे
जो लिखा करते थे डायरियाँ
पर भई डायरी लिखना
खेल नहीं
कौन लिख पाया
आज तक भीतर का सच
आपका सच आप ही जानते हैं
जैसे जानती हैं माँ
बच्चे का पिता, जन्म,स्थान,समय
या जनने की पीड़ा।
फिर क्यों लेता हूँ हर साल
नई नई डायरियाँ।
डायरी भेंट करना भी तो
एक शरारत है
डायरी नहीं चुनौती दी जाती है आपको।
डायरी न लिखो
तो भी चला रहता है जीवन
कोई तो है जो लिखता जाता
लेखा जोखा चुपचाप।
पल पल छिन छिन
लिखा जा रहा जीवन
क्या इबारत से ही
लिखी जाती हैं डायरियाँ।