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डूब कर ख़ुद में / प्रभात त्रिपाठी

डूब कर ख़ुद में
लिख सकूँ कुछ शब्द
ऐसा वक़्त शायद ही मिले अब
शायद ही खिले एकान्त मन का
इस जनम में फिर दुबारा
धूप में चम् चम् चमकते
सुर्ख फूलों के बग़ीचे में
कभी आकर चखूँगा रस समय का
 
वह सरल विश्वास कब का जा चुका है
और जो कुछ शेष
उसका क्या करूँ
यह प्रश्न तक अब हो चुका
बिलकुल निरर्थक
क्योंकि कर्ता कर्म का अपने
कभी मैं हो सका
इसमें गहन सन्देह

इसलिए यह देह मेरी
ईश के वरदान या अभिशाप-सी
एक दुर्लभ पुण्य-सी या पाप-सी
रात दिन बस देखती है
चित्र अन्तिम स्वप्न का
स्वप्न अन्तिम चित्र का
साँस टूटे, देह छूटे
और केलो के किनारे
राख का कण कण पुकारे
 
यही है वह शख़्स
जिसने ज़िन्दगी भर
प्रेम की कविता लिखी थी
मृत्यु के स्वर में
यही है वह शख़्स
कल तक रहा जीता
जो तुम्हारे शहर की संकरी गली के
पुरनिया घर में