डेली पसिंजर / निलय उपाध्याय
महज आधा घंटे की देर ने
जब अलग कर दिया काम से
तो फूटी अकल
और अगले दिन
साथ आई स्टेशन पर सायकिल
गाड़ी आई
तो छतो से जैसे भनभनाकर उड़े बर्रे
ठेला वाले, खोमचा वाले और कुली
इस तरह मची ठेलम ठेल ..इस तरह उभरा शोर
कि बैठ गया मन
यक़ीन हो गया कि अब न होगा जाना
जब ज़ोर आजमा कर चढ़ रहे हो चढ़ने वाले
मुश्किल हो तलवे के लिए जगह
कैसे चढ़ेगी लोहे की देह
कहाँ मिलेगी जगह
दो डब्बों के बीच की जगह पर टिकी ही थी नज़र
कि पुकार लिया अनजान चेहरों ने
अपरचित और सधे हाथ
खिड़की से बाहर निकले और थाम लिया
कहाँ मिला था
कभी आदमी के जीवन मे
यह मान
भीतर जाकर देखा तो
बड़े मजे में थी
लोहे की महारानी..ठेलम ठेल
धक्का-मुक्की ..पसीने की बदबू से दूर
रूमाल के सहारे खिड़की से बंधी
रह-रहकर ऐसे बज उठती थी घंटियाँ
जैसे मुझसे ही कह रही हों कि
ख़याल रखना अपना
अब तो
वही जगह बन गई है उनकी
जाम हो गया है हैन्डल और कैरियर मे
लोहे का हुक
डब्बे खाली हों
तब भी वही टंगती है
ट्रेन की गति से चलती है
वह भी डेली पसिंजर है ।