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ढ़ूँढ़े मिलता नहीं मंज़िलों का निशां / देवी नांगरानी

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ढ़ूँढ़े मिलता नहीं मंज़िलों का निशां
आके तूफाँ उन्हें ले गया है कहाँ

उनसे दो पल की खुशियाँ न देखी गईं
ग़म हमें आके देने लगे धमकियाँ

जाने क्या वो समझता रहा है मुझे
इक भिखारी भिखारी का है राजदां

आँक पाये न कीमत कभी ज़ीस्त की
बस उन्हें तो रही फ़िक्रे-सूदो जियाँ

दर्द जाना न उसका किसीने कभी
अनसुनी रह गई दर्द की दास्ताँ

कुछ बजाता है मुतरिब रबाब इस तरह
एक आलम पे छाई हैं मदहोशियाँ

जब ये दुनिया उसे खुल के रोने न दे
क्यों न रह-रह के 'देवी' भरे सिसकियाँ