भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ढ़ूँढ़े मिलता नहीं मंज़िलों का निशां / देवी नांगरानी
Kavita Kosh से
ढ़ूँढ़े मिलता नहीं मंज़िलों का निशां
आके तूफाँ उन्हें ले गया है कहाँ
उनसे दो पल की खुशियाँ न देखी गईं
ग़म हमें आके देने लगे धमकियाँ
जाने क्या वो समझता रहा है मुझे
इक भिखारी भिखारी का है राजदां
आँक पाये न कीमत कभी ज़ीस्त की
बस उन्हें तो रही फ़िक्रे-सूदो जियाँ
दर्द जाना न उसका किसीने कभी
अनसुनी रह गई दर्द की दास्ताँ
कुछ बजाता है मुतरिब रबाब इस तरह
एक आलम पे छाई हैं मदहोशियाँ
जब ये दुनिया उसे खुल के रोने न दे
क्यों न रह-रह के 'देवी' भरे सिसकियाँ