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तदुपरांत / मंजुला बिष्ट
Kavita Kosh से
अनेक बार बेवक्त बोल पड़ने के बाद
मौके पे चुप रहने का अभ्यास आता है
कुछेक क़ीमती चीज़ें छूट जाने के बाद
चुन लेने की आकंठ प्रतीक्षा आती है
परिंडे पर रखा घड़ा चटखने के बाद
घाट से उतरता कुम्हलाता जल याद आता है
सत्तासीन की उदासीनता देखने के बाद
नाखून पर सूखी नीली स्याही चिढ़ाती है
एक किशोर की आत्महत्या के बाद
बच्चों के निपट शांत कमरें साँस रोकते हैं
अनेक बेचैन पंक्तियाँ अधूरी रहने के बाद
वे कविता नहीं,कोई कहानी बनके लौटती है
स्वजनों के सम्मुख बारहा रोने-बिसूरने के बाद
उनसे मिली घृणा और उपेक्षा,मजबूत बनाती है
आदमी के भीतर स्वयं के लिए उठे विरोध के बाद
वह बाहर लड़ने-भिड़ने के लिए तैयार हो पाता है