भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तन देखो दा / मथुरा प्रसाद 'नवीन'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओ देखो आग
जर रहले हे
मुसहर टोली,
जानऽ हा
के खेलल के
ई आग के होली?
हमरा तो इहे जना हे
कि गरीब के खून
हरदम पानी में सना हे
रमधनियाँ जोतैले गेलै खेत,
सुनऽ हियै कि
ओकर गियारी
देलकै कोय
हँसुली से रेत
ई सब धंधा,
करवा रहले हे
जेकरा इमारत हे
धन के अंधा
आखिर ई बेलना
कहिया तक बेलल जैतै?
गरीब के साथ
ई खून के होली
कब तक खेलल जैतै?
कोय मरै
काय जीअै
कोय पानी बिन तरसै
कि कोय
दिन रात खून पिऐ
के कहें बाला हे,
सब तो हियां
करेजा पर
 पत्थर पर
पत्थर बांध के
सहै बाला है
हो रहले हे
दिन-रात खून के होली
देख रहला हे पंजाब
भेकन्दर बन गेलै
तनी गो
फंुसी के घाव
लगा देलके हे दाव पर जान
हुआं के
खेतिहर मजदूर किसान
हे हो किसान भाय!
तनी तन के देखा दा
दिन तोहर उँगली पर हो,
गन के देखा दा।