भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तप रहा है अब दिवस जो / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तप रहा है अब दिवस जो,
प्राण मेरे, मत विकल हो !

बून्द भर जल को नदी तक
है तड़पती किस तरह से,
जो कि जल से था लबालब
दह निकलती कमलदह से;
प्राण हकहक पाखियों के
ओस कण को दूब तरसे,
छाँह की सब छाँह पी कर
रात भी अब आग बरसे;
मुँह चुरा कर आम्र-वन में
मौन कोकिल, मत कपस-रो!

क्या हुआ कचनार रूठा
केतकी तो उर्वशी है,
गंध की रानी शिरीष है
और चम्पा की हँसी है;
भोर की शीतल हवा यह
दूतिका आषाढ़ की-सी
तो, बहुत कुछ जीतने को
है बिछी अब भी पचीसी;
फेकता हूँ एक पासा
जेठ अब इसको संभालो !