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तब भी समझ लोगी अनकहा / नीलोत्पल
Kavita Kosh से
नहीं कहूँगा
तब भी समझ लोगी
अनकहा
साँसों के झुटपुटे में
दबी हँसी के स्वर
नहीं लाऊंगा होंठों तक
तब भी देख लोगी
पतझड़ के पत्तों की ओट से
धूप के चमकते टुकड़े
कुछ चीज़ें जो नहीं हैं हमारे पास
उनके मुताबिक ढाला तुमने ख़ुद को
ख़ामोशी से
कहने के लिए कुछ नहीं है मेरे पास
मैं एक शब्द, स्मृति
या अपने किए की बौखलाहट भर
टटोलता हुआ नज़दीकी चीज़ों को
पहुँच नहीं पाया तुम तक कभी
हजारों कोशिशें ऐसी कि
बताना चाहा तुम तक आता रहा हूँ
लेकिन भटकता रहा धरती से आसमान के बीच
तिनके की तरह
कभी समझ नहीं पाया
तुम्हारे पास ये कैसी चाहत है
जो भाँप लेती है मेरी हर इच्छा
तुम कोई जादूगरनी नहीं
जबकि
तुम्हारे नक्षत्रों की रोशनी में भींगकर भी
मैं अनकहा ही रहा