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तरलायित / केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’
Kavita Kosh से
नयनों में सपने जब आते
गगन छलक पड़ता है
नूपुर के रव से मुखरित कर
तारों की अमराईं
लहराने इठलाने लगती
रस से भरी जुन्हाई
कली-कली के अंग-अंग से
मदन छलक पड़ताहै
खुल जाती पंखुरियां जैसे
खुले कंचुकी-बंधन
सजल पुतलियों में खुल जाता
मन-मंथन का गोपन
सोई सुरभि सम्हाल न पाती
पवन छलक पड़ता है
सिहर-सिहर उठती तन्मयता
संज्ञा के अंचल में
संज्ञा सिहर-सिहर उठती
सांसों की मृदु हलचल में
भावों का भव भर-भर जाता
भुवन छलक पड़ता है।