तशवीश / हसन 'नईम'
मुझ को तशवीश है कुछ रोज़ से मेरे महबूब
मेरे अंदाज़-ए-तफ़क्कुर की ये पुर-ख़ार रविश
तेरी हस्सास तबीअत को न कर दे मजरूह
और तू समझे कि नहीं तुझ में वो पहली सी कशिश
अब भी जलवों में है तख़्लीक़-ए-मोहब्बत की सकत
तिरी बातों में अभी तक है फ़सूँ का अंदाज़
आरिज़ ओ लब पे तबस्सुम का ख़िराम-ए-मदहोश
अब भी देता है तख़य्युल को पयाम-ए-परवाज़
फिर भी एहसास-ए-मर्सरत का न हो ज़हन को होश
गिन तो सकता हूँ शब-ए-हिज्र में तारों को मगर
ज़हन आवारा ख़यालात से भर जाता है
अश्क-ए-मजबूर बहाऊँ ग़म-ए-जानाँ में मगर
सिलसिला मेरे इन अश्कों का बिखर जाता है
मुझ को तशवीश है कुछ रोज़ से मेरे महबूब
मिरे अंदाज़-ए-तकल्लुम की ये बे-गाना-रवी
तेरी हस्सास तबीअत को न कर दे मजरूह
और तस्कीं न हो फिर हुस्न-ए-ख़ुद-आरा को कभी