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तसव्वुर का मकान / शिव रावल
Kavita Kosh से
तसव्वुर के मकान में हम दो जने रहते हैं
मैं हर लम्हा होता हूँ यहाँ,
वो दूसरा आँख-मिचौली खेलता रहता है
मैं अक्सर उसे इस अंजुमन में ढूँढता रहता हूँ
वो परछाई-सा दिख जाता है कभी-कभी
पर ज़्यादातर छुपा रहता है
वक़्त की उसे अलमारी के पीछे
जिसमें रखे हैं न जाने
कितने अनगिनत गुज़रे ज़माने 'शिव'