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तीन रुबाइयाँ / रणजीत
Kavita Kosh से
1
ज़ुल्म जब सहे नहीं जाते तब कलम उठाता हूँ
हर मज़लूम हृदय में सोया द्रोह जगाता हूँ
मेरी कविता वह मशाल है जिससे मैं समाज के
इस सड़ियल ढाँचे में आग लगाता हूँ।
2
मैं बाग़ी हूँ और बग़ावत मेरा काम है
हर लम्हा हमले का मौका कदम-कदम पर लाम है
जब तक ख़ून की सौदेबाज़ी बंद नहीं हो जाएगी
मेरा हर अक्षर शोलों से भरा हुआ पैग़ाम है!
3
प्यार और बग़ावत के मैं गीत लिखता हूँ
हैवानियत की हार और इन्सानियत की जीत लिखता हूँ
लड़ाई ज़ारी रहेगी जब तक 'इन्सान' इन्सान नहीं बनता
इसलिए अपना नाम अभी 'रणजीत' लिखता हूँ।