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तीव्र नीली कोलम सिम्फ़नी-4 / दिलीप चित्रे
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आदमी का गला बैकुण्ठ का भार नहीं सह सकता
वह सिर्फ़ तुलसी की माला पहन सकता है
और बेसुरे कोरस में भजन गाते हुए
वे जो प्रलय की लोककथाओं से डरते हैं लौट जाते हैं सामान्य सजगता में
कुण्ठाओं के शहर में
मैं वास्तविकता की आग पर चलता हूँ
मेरे पैर भी जल जाते हैं । नंगे पैर
मैं भी भयावह प्रलय के गीत गाता हूँ
गीत जिनसे वास्तविकता की आग पर चलने की चाह है