तीसरी लड़की की लाश / संजय शेफर्ड
हवा में उड़ती अफवाहों का पीछा करती नज़रे
जब पकड़ लेती हैं
कथित तौर पर भागती बिटिया का हाथ
तो बेटी को शब्दों से नहीं
अपने मुखर होते मौन से जबाब देना होता है
जिसकी भाषा एक पुरूष कत्तई नहीं समझता
पर स्त्रियां समझती है
एक मां बार- बार अपनी समझ को दूर झटक
बस एक ही बात दुहराती है
ना समझ और अज्ञानी होना ही अच्छा है
पढाई- लिखाई दिमाग तो खोलती है
पर मति को मार देती है
रामधनिया की मति भी मारी गई है
जो गांव की होने के बावजूद प्रेम कर बैठी
शहर में ब्याही बुआ कम उम्र होने के बावजूद
प्यार- मोहब्बत के मसले को समझने लगी है
क्या हुआ प्रेम ही तो की है ?
कौन सा मार गुनाह कर दिया ?
बार- 2 कहती और हर बार घर के बड़ों के द्वारा
नजरअंदाज कर दी जाती है
इस कड़े निर्देश के साथ- मेहमान हो मेहमान की तरह रहो
छुटकी घर के गलियारे में
बिना कुछ खाए पीए सुबह से सुबक रही है
आने वाले ना जाने किस अनजाने कल के डर से
तू खा पी ले या फिर तुझे भी भागना है ?
उसकी चुप्पियां कोई माक़ूल जबाब नहीं देती
और फिर थोड़ी देर बाद एक मरी हुई खामोशी छा जाती है
मौत के सारे समीकरणों के बीच
एक और समीकरण को जोड़ते हुए घोषणा कर दी जाती है
रामधनिया हमारे लिए मर गई
उससे घर का जो भी सदस्य ताल्लुक रखेगा
उसे भी मरा मान लिया जाएगा
इस घोषणा के साथ घर के पुरुषों की मुड़ी हुई मूंछे
दुबारा खड़ी हो जाती हैं
स्त्रियों के पास शायद मूंछे नहीं होती
सिर्फ आंख, कान, मुंह- चुप्पी, उदासी और आंसू होते हैं
जिस पर विस्मय और दर्द का चढ़ना लाज़मी...
प्रेम में मरी गांव की लड़की की, उस तीसरी लाश की तलाश जारी है...