भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुझ पर मैं वारी / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(धुन: परिछन)

घोड़ा-न-हाथी, लो आ गये बराती—
बदल-से घेरे दुअरिया!
तुझ पर मैं वारी संवरिया रे दुलहा,
तुझ पर मैं वारी संवरिया!
घुटनों के नीचे है धोती गुलाबी,
माथे अंगोछा सजीला;
कुर्ता पुराना है लेकिन केसरिया,
जूता रबड़ का रंगीला.
मुँह पर जो धानी रूमलवा रे दुलहा,
नजरें गिराये बिजुरिया!
फूटी न सीसो की गांठें, जो फूटी—
तेरी अनोखी जवानी;
तेरे पसीने से खेती जो लहरी,
--बरसा झमाझम पानी.
बजादिया तूने नगाड़ा रे दुलहा,
खूब ढोल पीटे नगरिया!
घूरें जो पीछे से मालिक-महाजन,
--ढह जाय उनकी अटारी;
परिछे सुहागन की टोली झुमूकझूम
गैया हुमकती हमारी .
बछिया है दूबों की पाली रे दुलहा,
धीरे से धरना रसरिया!