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तुम्हारा आना/ गोबिन्द प्रसाद
Kavita Kosh से
तुम्हारा आना
जैसे खुली आँखों का सपना
तुम्हारा आना
जैसे दिए में लौ का जल उठना
तुम्हारा आना
सूने आसमान में उगता हो जैसे
धीरे-से तारा
तुम्हारा आना
दौड़ता हो जैसे
रगों में पारा
तुम्हारा आना
जैसे घिसटते हुए पाँव की पुलक
मक़बरों के आस-पास
ढलते हुए सूरज की रमक़
तुम्हारा आना
जैसे रात के सन्नाटे में कोई शहर
तुम्हारा आना
साँस लेता हो जैसे कोई वीरान खण्डहर