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तुम्हारी उपस्थिति शून्यवत कर देती है / वाज़दा ख़ान
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तुम्हारी उपस्थिति शून्यवत कर देती है
दिन रात को लड़खड़ा जाती हैं बेचैनिया
ओठों पर उभर आती है तुम्हारी ख़ामोशी
रख नहीं पाती खुद को तुम्हारे समक्ष
या तुम देखना नहीं चाहते
महसूस भी नहीं करना चाहते
गुलमोहर के फूलों की थरथराहट
दरअसल कुछ गणनायें
अनन्त काल से ही ग़लत सही होती आ रही हैं
मनुष्य को कोई वश नहीं उस पर
हां ये ज़रूर है हम चाहें तो
सितारे नक्षत्रों को पढ़ते हुये
गणनाओं को अपेक्षित आकाशगंगाओं में
ढाल सकते हैं तसल्ली के लिये
बांट सकते हैं सहजता
क्षितिज पर रख सकते हैं अपनी गम्भीरता
रेतीली सूखी सतह पर
सूरज की उगती हुयी किरणों को लेकर
कोई कालजयी कृति बनायी जा सकती है
असम्भव शब्दों से लिखी जा सकती है दोबारा
आत्मकथा.