रात घिर रही है
उतर रही हो तुम
मेरे अंधेरे में
उदास मन और ज़ख़्मों को सहलाते हुए
तुम्हें समेट लेना मेरे बस में नहीं
जैसे तनाव में ढिली छोड़ी रस्सी
साँस ले रही है
तुम्हें जीतने के इरादे से हारा
खुल रहा हूँ बेहद शांत
तिनके की तरह हलका होता
नहीं चाहता
समय की आपाधापी में
नष्ट हो तुम्हारे साथ जीये गए सपने
नदियों, दरख़्तों, हवाओं को सौंपने से पहले
भींगना चाहता हूँ एक बार फिर
उसी बारिश में
तुम्हारे साथ के भरोसे ही
जीता आया हूँ अब तक
तुम महज़ स्त्री नहीं हो मेरे लिए
पराजित योद्धा की आँखों में
डूबती हुई उदास चीज़ों पर
रचती रही हो समय का पहला पतझर
वसंत के लिए
तुम्हारे सहारे ही जीता आया हूँ अंधेरा