तुम करते रहो रसिकवर! यह रस-पान निरन्तर।
फिर भरते रहो नित्य नव रससे मेरा अन्तर॥
मैं तुम्हें करान्नँ पान मधुरतम रस नित, नटवर!
तुम मुझे पिलाते रहो स्व-रस, रसमय! जीवनभर॥
रस-दान-पानमें रहें सदा संलग्र परस्पर।
बस, काल अनन्त न हो विराम, रस-धाम! पलकभर॥
नित नयी-नयी लीलाका हो निर्माण मनोहर।
हो कभी न किंचित् तृप्ति, बढ़े नित प्यास अधिकतर॥
हम करते रहें प्रिया-प्रियतम शुचि रास रसाकर।
हो नित्य उच्छलित परम मधुर रस-सुधा-उदधि वर॥