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तुम न हो सके मन के / रामगोपाल 'रुद्र'

तुम न हो सके मन के, मन न हो सका मेरा!
बात तो बहुत कुछ है, तुम अगर सुना चाहो;
हर नकाब उठ जाए, तुम अगर चुना चाहो;
तुम नहीं घिरे तो फिर याद ने मुझे घेरा!

किस तरह कहूँ यह घर शौक का नमूना है;
चित्र हैं न गुलदस्ते; हर तरह से सूना है;
किस तरह रहोगे तुम, दर्द का जहाँ डेरा!

मैं फ़क़ीर हूँ तो क्या! माँगने कहाँ जाता?
फेर लो दिया अपना, तो बड़ी दया दाता!
फेर में तभी से हूँ, तुमने जो दिया फेरा।

मुझसे पूछते क्या हो! आसमान से पूछो;
या नहीं तो खुद, हलफन, अपनी शान से पूछो
मैंने किस तरह टेरा, तुमने किस तरह हेरा!