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तोड़ देंगे जंगलों का मौन / अनिल कार्की

तोड़ देंगे जंगलों का मौन
वे नहीं करेंगे इन्तज़ार सूरज आने का
बल्कि अल-सुबह ही
वे कुहरे की चादर चीरकर
भेड़ों के डोरे<ref>रस्सियाँ</ref> खोल देंगे
और चल देंगे जंगल की तरफ

तब भेड़ों के खाँकर<ref>पीतल की घण्टी</ref> बजेंगे जंगलों के बीच
खनन-मनन वाली धुनों में

दूर किसी पहाड़ पर
कुहरे के भीतर गूँजेंगी
शाश्वत खिलखिलाहटें
बजेंगी
घस्यारिनों<ref>जानवरों के लिए चारा काटने वाली पहाड़ी महिलाएँ</ref> की दरातियाँ

धीरे-धीरे ही छटकेगा
कुहरा
आवाजें और साफ
और हमारे करीब होती जाएँगी
एक दिन

ठीक उसी वक़्त धार<ref>पहाड़</ref> पर चढ़ेगा सूरज
और बिखेर देगा
ढलानों पर
रोशनी का घड़ा
मोतियों की तरह !

शब्दार्थ
<references/>