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थर्मस / हरीशचन्द्र पाण्डे
Kavita Kosh से
बाहर मौसम दरोगा-सा
कभी आँधियाँ कभी बौछारें
कभी शीत की मार कभी ताप की
अपनी शर्तों पर सभी कुछ
सभी कुछ झेल रही हैं बाहर की दीवारें
कुछ भी पता नहीं है भीतर की दीवारों को
भीतर काँच की सतह पर गर्म दूध
हिलोरे ले रहा है
एक दिव्यलोक जहाँ
ऊष्मा बाँट ली जाती है भीतर-ही-भीतर
बाहर का हाहाकार नहीं पहुँच पाता भीतर
भीतर का सुकून बाहर नहीं झाँकता
एक छत के नीचे की दो दीवारें हैं ये
जिनके बीच रचा गया है एक वैकुअम
बहुत बड़े वैकुअम का अंश है यह
संवाद के बीच पड़ी एक फाँक है
इंकार का एक टुकड़ा है।