दण्डक / शब्द प्रकाश / धरनीदास
मिलनोत्सुकता:
भजन किबो है सखि सजन आवन सुनो, वचन हुला स मुख जोति चन्द की लजी।
षोडश द्वादसो अलंकार पार, नहि वैठ आप निज गेह देह को तजी॥
धरनी सो हाय विलखय पलँगा विछाय, मुकुर मँगाय छवि प्रेम दुंदभी बजी।
रोम रेख झीन पेट मध्य देखि व्यालिनिसी, आरसी निहारि नारि डारि चीर दै भजी॥1॥
चेतावनी:
छीया वुन्द छविकरि सूरति मूरति धीर, दवो ज्ञान ध्यान किये ताको नाम गहुरे।
माया मोह धँध अँध कछु न रहैगो थिर, वाहि चिंतामनि चित लाय मूढ़ रहुरे॥
जाँ तू कियो वाते साज कहा करै यमराज, वाहि परवाहि राखु औरकी न सहुरे।
धरनि आपुर्दा न बढ़ैगो पल छिन एक, धरी धरी टरा जात, हरि हरि कहु रे॥2॥
विनय:
दियो तन मन प्रान ज्ञान औ अहार दियो, दीजै मोहि केवल चरन चित राधनी।
और दीहो तो आनन्द नाहि तो कछू न द्वन्द, छोडि नर चाकरी जे जाने सो करे धनी॥
धरनी शनी लई कर्त्ता हर्ता तुही, तोहि छोंडि और केहि आग देह साधनी।
जोई प्रभु देहो ताहि राजी मन राजा के सो, और काह नाथ! जिइ लाखे माट बाँधनी॥3॥