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दरख़्त / धर्मेन्द्र पारे
Kavita Kosh से
गुलेल हैं
कुछ
कुछ
पत्थर हैं
इशारे हैं कुछ
लोग
फ़क़त दरख़्त
हूँ मैं
सनसनाते पत्थर
तार-तार कर रहे हैं
पत्ते मेरे
लहूलुहान है
माथा मेरा
चिड़ियों को
आकाश देने के लिए
पेड़ होना बहुत
ज़रूरी है