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दराज़ / इब्बार रब्बी
Kavita Kosh से
बीच की दराज़ में बन्द हूँ ।
ऊपर होता हूँ तो
पैर टूटता है
नीचे सरकता हूँ
सिर फूटता है ।
मैं कहाँ जाऊँ !
क्या करूँ !
कैसे रहूँ इस अन्धेरे में !
कब तक काग़ज़ों से पिचका हुआ !
दराज़ की हत्थी टूटी हुई है
कोई है
जो खींचकर निकाले
बेहत्थी दराज़ को
मैदान बना दे
मुझे हवा की दुनिया में
गुब्बारे-सा उड़ा दे ।
रचनाकाल : 25.09.1978