भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दर्द सैकड़ों दिल की दास्तान से गुज़रे/वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
Kavita Kosh से
दर्द सैकड़ों दिल की दास्तान से गुज़रे
वो गली से गुज़रे पर बदगुमान से गुज़रे
पंख जल गये सबके, जिस्म हो गये ज़ख़्मी
ये परिन्दे ख़्वाबों के किस उड़ान से गुज़रे
मुस्कुरा दिया तुमने मुझको मिल गई जन्नत
सैकड़ों महकते गुल जिस्मो-जान से गुज़रे
देश की तरक़्क़ी का उसने ज़िक्र छेड़ा तो
भीख मांगते बच्चे मेरे ध्यान से गुज़रे
तौबा, हुस्नवालों से दोस्ती ! अरे तौबा
कौन हर घड़ी हर पल इम्तिहान से गुज़रे
तुझसे क्या गिला या रब ये करम भी क्या कम है
ज़िन्दगी के कुछ लम्हे इत्मीनान से गुज़रे
ऐ ‘अकेला’ राहे-दिल जगमगा सी उट्ठी है
दर्द के मुसाफिर भी कैसी शान से गुज़रे