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दर्पण में दर्प / दिनेश कुमार शुक्ल

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छप्पर-छानी सजी हुई है
परवल, पान, रतालू की बारी में भीगी
वर्षा ऋतु की गमक अभी तब बसी हुई है

चैत गया, बैसाख आ गया
महुआ चूने लगा
लपट लू की झुलसाने लगी
तवे-सी तपती धरती लेकिन फिर भी
पनवारी की बारी में
हरियारी की ऐसी रंगत है ऐसी धज है

जैसे कोई नया-नवेला
बप्पा से आँखें बरका कर
पान दबा कर, चोरी-चोरी
पनवारी के दर्पन में
अपनी मुखशोभा देख रहा हो
और भीगती हुई रेख का दर्प
दीप्त कर दे दर्पन को !

हरियाली के भीतर-भीतर, उठती-गिरती
एक लहर उससे भी गहरी हरियाली की !