दशहरे पर दो कविताएँ / राकेश पाठक



थोड़े से लाल फूल बिखेरे
अनामिका से कुमकुम का तर्पण किया
रक्त चंदन से माथे पर सौंदर्य लिखा
तब सुर्ख लाल आँखों से झाँकता वह दैदीप्य चेहरा
धीमे जलते पीले चिरागों के बीच मुस्कुराता
उस स्त्री के मुख
और
माँ के मुख की मुस्कानें
एक सी ही लग रही थी सखी.



आसमान रावण के अट्टहास से भरा था और बादल सीता के आँसुओं से
पूरी पृथ्वी सो रही थी और कुंभकर्ण के खर्राटे गूँज रहे थे
सूर्य की तरह आँखें लाल किये लक्ष्मण तपतपा रहे थे
राम मर्यादाओं में बंधे सिसक रहे थे
बुद्धिमान मानवीय सृष्टि तमाशा देख रही थी
हम अपने हथियार और गदा खोज रहे थे
पर उधर
कम अक्ल जानवरों की एक टीम के सेनानायक हनुमान
सीता मइया को ढूँढ रहे थे
नल-नील रास्ता बनाने में लगे थे

सृष्टि हमेशा कम बुद्धिमान लोगों ने बचायी है
जानवरों को आगे कर हमने लड़ाईयाँ जीती हैं
यह दशहरा उन तमाम अविकसित लोगों के जुनून की विजय है
न कि आर्य और अनार्य, देवता और राक्षसों के बीच की.

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