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दिन का दंगल उदस गया है / केदारनाथ अग्रवाल
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दिन का दंगल उदस गया है
चलते-चलते चारण चरखा ठहर गया है
सूरज का मुख-
दुनिया का रुख बदल गया है
शाम सुनहली कोलतार में डूब गई है
बंद हुए चौमुख दरवाजे
बाहर भालू अगम खड़ा है
सन्नाटे के बाल फुलाए,
क्या मजाल जो कोई पत्ता हिल ही जाए,
चले हवा अपना चंचल लँहगा लहराए,
और रोशनी
जुगनू वाले दिए जलाए
रचनाकाल: २४-०८-१९७१