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दिन ढले / विपिनकुमार अग्रवाल

चलें
मिलें सब से
करें बात
हँस-हँस के
जहाँ साँझ बिखरी
सागर किनारे
खुले आँगन पसरी
दिए की रोशनी-सी

जिज्ञासा के उत्तर में जिज्ञासा मिली

यह शहर
बसा संकल्प धरती पर
करता रूप ग्रहण
सबके लिए अलग-अलग
यहाँ साइकिलें मोटरें अट्टालिकाएँ
उपस्थित अना की तरह

जगह-जगह
फुरसत में
बाँके चार
डोलते डिब्बे में
उतरवाते जेवर
बतियाती औरतों के

दिन मुरझाने को है
रात भी ढँक नहीं सकती
इस नगरी की
अपूर्व आभा
द्रुतगतियों में स्थापित करती
विशाल अभिव्यक्ति अमूर्त युग की
समय की बात मत पूछो
आज भी इसकी ओढ़नी पर
कढ़ रहा है इतिहास
जगह-जगह