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दिन रा घोबा / इरशाद अज़ीज़
Kavita Kosh से
रात म्हासूं
बंतळ करती सोयगी
बा कदैई रोवती ही
कदैई हंसती ही
म्हैं नीं समझ सक्यो
उणरै रोवण अर हंसण रो कारण
जद पूछूं
तद अेक ई बात कैवै -
कांई करसी थूं जाण‘र
दिन रा घोबा
रात नैं ईज दुख देवै
थूं ई सोयजा
अर म्हैं ई
सोवण रो करूं जुगाड़।