मेरे तारनहार की बाँहें
सहस्त्र बाहू होकर
दिशाओं की बाँहें बन गईं हैं.
उसमें सारा आकाश सहारे को ,
सारी वायु प्राण को,
सारी अग्नि ऊर्जा को ,
सारा जल तृप्ति को,
पर मैं ही न समा सकी ,
क्योकि मैं पृथ्वी हूँ.
एक विचित्र अलक्ष्य विरह से कातर
अनिवार्य नियति ने मुझे केवल
सूर्य के चहुँ ओर
फेरी लगाने को कहा है.
सूर्य मैं समां जाने को नहीं कहा.
मेरे तारनहार की बाँहें
मेरे लिए पसरी थीं .
मेरी धन्यता का पार नहीं था .
पर मैं ही हत पुण्या हूँ,
या क्षत पुण्या हूँ.
या ऋत पुण्या हूँ.
या नियति बद्ध नियमावली हूँ.
या पृथ्वी होने के नाते
सहनशीलता का पर्याय , प्रतीक
या विनत सौन्दर्यावली हूँ,
या चिर प्रतीक्षित अपने कोमलतम
क्षणों को भी निरीह और तटस्थ भाव से
देखने को अभिशप्त हूँ.
या मेरी प्रज्ञा चेतन हो गई है.
क्योंकि अभी मुझे सृष्टि की,
पंचाग्नि को सहेजना है.
बिखरे हुए कर्म परमाणुओं को समेटना है.
तुम्हारे प्रांजल सुगम स्नेहिल उदबोधन
और स्मृतियों से बने वैचारिक संस्कारों को सहेजना है.
मैं उन क्षणों को बाँध लाई हूँ,
इन्हे अतीत होने से बचाना है.
तब कहीं कल हमारा होगा.
हम तुम्हारे होंगे .
बस तुम दिशायों की बाँहे पसारे रखना.