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दिसंबर / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर
Kavita Kosh से
धूप ऐसी रज़ाई
जो हमें मुफ़्त में मुहैया
जैसे घास मवेशियों के लिए
वह इतनी अंतहीन
कि पाँव कहीं से भी
बाहर नहीं रहते
लेकिन वह वहाँ-वहाँ से फटी है
जहाँ-जहाँ छांव है