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दीपक जलाने आ गए हैं / धनंजय सिंह
Kavita Kosh से
इस तरह छाया क्षितिज पर था अन्धेरा
शाम का ही रूप धर बैठा सवेरा
इसलिए अब हम हृदय-दीपक जलाने आ गए हैं
आज हम उजियार का उत्सव मनाने आ गए हैं ।
एक दीपक बन स्वयं हम
स्नेह जीवन में भरेंगे और
जिनके मन अन्धेरों से घिरे हैं
आज अन्तर-ज्योति से उनके भरेंगे
पर किरण का बिम्ब दीखे हर दिशा में
हम उसे दर्पण दिखाने आ गए हैं ।
रह न जाए अब कहीं भी रात काली
इसलिए यह ज्योति अन्तस् में जला ली
चिह्न भी मिलने न पाए अब तिमिर का
इस तरह से हम मनाएँगे दिवाली
न्याय-समता-प्रेम के दीपक जलेंगे
हम विषमता को मिटाने आ गए हैं ।