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दीपोत्सव / सुरेश विमल
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1
आलोक अश्व की
वल्गा थामे
विचर रहा है
कोई अज्ञात
दिग्विजयी पुरुष
लोक में...!
चमचमा रहा है
अंधेरे का लहू
उसकी अद्भत तलवार की
नोंक में।
2
खंडहरों में भी
खिलखिला रही हैं आज
दीपशिखाएँ...!
टूट रही हैं
प्रचंड रव के साथ
अंधकार के अहम की
शिलाएँ...!
3
अद्भुत है भाई
दियों की
यह बग़ावत...
देखो देखो
अंधेरों के हाथी को
लगा रहा है अंकुश
रोशनी के
नन्हे-नन्हे महावत...!
4
अमावस की
काली चदरिया पर
बिछी हैं गोटियाँ
प्रकाश की...!
तम अविजित नहीं है
इस विश्वास की...!