भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देखना सुनना सुनाना सोचना / प्रफुल्ल कुमार परवेज़
Kavita Kosh से
देखना सुनना सुनाना सोचना
और क्या-क्या इस जगह पर है मना
दर्द चाहे किस क़दर बढ़ता रहे
जुर्म है लेकिन यहाँ पर चीखना
इस जगह का है ज़रूरी क़ायदा
आदमी को आदमी न मानना
किस क़दर सहमा हुआ है आदमी
दरहक़ीक़त है बहुत जंगल घना
आदमीयत को मिली हैं राहतें
ज़ुल्म के आगे कोई जब भी तना