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देखना सुनना सुनाना सोचना / प्रफुल्ल कुमार परवेज़

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देखना सुनना सुनाना सोचना
और क्या-क्या इस जगह पर है मना

दर्द चाहे किस क़दर बढ़ता रहे
जुर्म है लेकिन यहाँ पर चीखना

इस जगह का है ज़रूरी क़ायदा
आदमी को आदमी न मानना

किस क़दर सहमा हुआ है आदमी
दरहक़ीक़त है बहुत जंगल घना

आदमीयत को मिली हैं राहतें
ज़ुल्म के आगे कोई जब भी तना