देश-राग / प्रेम कुमार "सागर"
यह कौन से कुपथ पर जा रहा है देश
अधर्म अपसंस्कृति को अपना रहा है देश
तम ने विजय पायी है ज्ञान ज्योति दीप पर
अपने ही काल का कलेवा खा रहा है देश |
वेदों की ऊर्जा धाराएँ कब की गौण हो चुकी
गीता की सब पंक्तियाँ भी कब की मौन हो चुकी
पतित ही धारण कर रहे है यहाँ बुद्ध का वेश
अपने ही काल का कलेवा खा रहा है देश |
भरतनाट्यम खत्म हो रहा, नंग-नृत्य है शुरू यहाँ
अबला नारी के इज्जत पर, कुकृत्य है शुरू यहाँ
पतन-पथ पर फिसल रहा है गौरवमय परिवेश
अपने ही काल का कलेवा खा रहा है देश |
मन को छोड़ें, धन को पकड़े, लोग बहकते जाते है
तन की गर्मी में मनोभावों के खेत लहकते जाते है
रोज़ टूटती है आशाएं, रोता सपना हो निर्निमेष
अपने ही काल का कलेवा खा रहा है देश |
रिश्ते-नाते बेमानी से कौन पिता क्या पुत्र यहाँ
मन की गाँठों में ही उलझा मानवता का सूत्र यहाँ
भाई के निर्मम पैरों ने मारी राखी को ठेस
अपने ही काल का कलेवा खा रहा है देश |
सबने स्वाद चखा मदिरा का रोता फिरता है गोरस
सरस - सुकोमल फाग छोड़कर जीते है सारे नीरस
ज़िंदा दुर्योधन, हाय, रह गए खुले द्रौपदी - केश
अपने ही काल का कलेवा खा रहा है देश |
भूला मुस्काना उपवन सारा, रोना रोना बस रोना
हाय-हाय करने वालों का यहाँ नहीं कुछ भी होना
नहीं काम करता इन पर, हो कैसा भी उपदेश
फिर बताओ, कैसे बन पाएगा सुन्दर यह देश ?
हमें भूलकर स्वार्थ-वासना बस आगे आना होगा
दबे-कुचले-दीन-दलित को फिर से अपनाना होगा
करनी होगी मानव-भक्ति, ठुकराना होगा द्वेष
तभी, त्यागकर काल-कलेवा, सुन्दर होगा देश |