कबहुँ तप्यो-पर-ताप ते, हरी कबहुँ पर-पीर।
आसा-हीन अधीर-कहँ, कबहुँ बँधायी धीर।।1।।
नारकीय कहुँ यातना, सुनि हरिजन की कान।
पश्चाताप-विलाप तें, तड़पाये तन-प्रान।।2।।
सुनि श्रमजीवी दीन की, करुणा जनक-पुकार।
तिलमिलाय तड़पाय कहुँ, कीन्ह्यों कछु प्रतिकार।।3।।
विधि से, निधि से, नेम से, गुरु से ग्यानी, गन्य।
रवि से, छवि से, छेय से, कबि से कबिवर धन्य।।4।।
करुण कथा कोउ दीन की, कहतो सुकबि प्रबीन।
किमि लहतो उपहास इमि, मोसम मनुज मलीन।।5।।
कह्यो कबिन शृंगार ही, यद्यपि सुषमा-सार।
सोहै किन्तु मसान महँ, कबहुँ कि राग मलार।।6।।
देखि दशा सुकबीन की, सुधि आवै उपखान।
भौन जरै इक दीन को, इक गावै मृदु तान।।7।।
देखि देश-कानन दह्यो, दुसह दुकाल-दवाग।
कबि कोकिला अलापही, ठूँठन बैठि सुराग।।8।।
निस-दिन ‘झंझावात’ के, मरमर सुनत महान।
आवत कृशित किसान की, किन्तु कराह न कान।।9।।
परै प्रलोभन कोटि किन, करै न चंचल कोय।
खरो कसौटी तें कढ़ै, नेता कहिये सोय।।10।।