दोहा / भाग 2 / विक्रमादित्य सिंह विक्रम

तेरौ तेरौ हौं कहत, दूजो नहीं सुहाइ।
कहिबी बिरद सम्हार अब, बिक्रम मेरो आहि।।11।।

भूलि तजतहौं भलि नहिं, यहै भूलि कौ देस।
तुम जिन भूलौ नाथ मम, राखह सुरत हमेस।।12।।

तरल तरौना पर लसत, बिथुरे सुथरे केस।
मनौ सघन तम तोम नै, लीनो दाब दिनेस।।13।।

मृगनैनी बेनी निरख, छबि छहरत बरजोर।
कनक लता जनु पन्नगी, बिलसत कला करोर।।15।।

तरुनि तिहारो देखियतु, यह तिल ललित कपोल।
मनौ बदन-बिधु गोद मैं, रविसुत करत कलोल।।15।।

मृगनैनी की पीठ पर, बेनी लसत सुदेस।
कनकलता पर ज्यो चढ़ी, स्याम भुजंगिनि बेस।।16।।

कहँ मिसरी कहँ ऊख रस, नहीं पियूष समान।
कलाकंद कतरा कहा, तुव अधरा रस पान।।17।।

रूप सिन्धु तेरो भर्यो, अति घनि अधिक अथाह।
जे बूड़त हैं बिन कसर, ते पावन मन चाह।।18।।

गौने आई नवल तिय, बैठी तियन समाज।
आस पास प्रफुलित कमल, बीच कली छवि साज।।19।।

दुहुँ कर सौं तारी बजत, है प्यारी यह रीति।
प्रीति बढ़ावत बनत तब, जब लखियत उत प्रीति।।20।।

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