दोहा / भाग 6 / मतिराम
सुखद साधुजन को सदा, गजमुख दानि उदार।
सेवनीय सब जगत कौ, जग मां बाप कुमार।।51।।
मदरस मत्त मिलिन्द गन, गान मुदित गन-नाथ।
सुमिरत कवि मतिराम के, सिद्धि-रिद्धि-निधि हाथ।।52।।
अंग ललित सित रंग पट, अंगराग अवतंस।
हंस बाहिनी कीजियै, बाहन मेरो हंस।।53।।
नृपतिनैन कमलनि वृथा, चितवत बासर चाहि।
हृदय कमल मैं हेरि लै, कमल मुखी कमलाहि।।54।।
ब्रज ठकुराइनि राधिका, ठाकुर किए प्रकास।
ते मन मोहन हरि भए, अब दासी के दास।।55।।
जो निसि दिन सेवन करै, अरु जो करै विरोध।
तिन्है परमपद देत प्रभु, कहौ कौन यह बोध।।56।।
पगी प्रेम नंदलाल के, हमें न भावत जोग।
मधुप राजपद पाइ कै, भीख न माँगत लोग।।57।।
मधुप त्रिभंगी हम तजी, प्रकट परम करि प्रीति।
प्रकट करी सम जगत में, कटु कुटिलनु की रीति।।58।।
विषयनि तें निरबेद बर, ज्ञान जोग ब्रत नेम।
विफल जानियों ए बिना, प्रभु पग पंकज प्रेम।।59।।
देखत दीपति दीप की, देत प्रान अरु देह।
राजत एक पतंग में, बिन कपट को नेह।।60।।