दोहा / भाग 9 / बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’
लगी खबरिया चलि भए, ते पँचरंगी मीत।
या पँचरंगी जगत की, कहौ जु कौन प्रतीत।।81।।
बनि बिगरत इक निमिष में, इन्द्रधनुष के रंग।
त्यों बनि बिगरत रहत है, जन जीवन के संग।।82।।
सुनि उनके प्रस्थान की, उठी हिये में हूक।
दृग पथराए से भये, भयौ हृदय द्वैं टूक।।83।।
अपने या हिय कीं बिथा, कैसे बरनी जाय।
वाकौं कैसै कहि सकैं, शब्द-दीन निरुपाय।।84।।
हिय पूछत जीवन कहाँ? कहाँ काल कौ कोर।
कहा-काल की परिधि में, जीवन रहत अथोर।।85।।
ये कछु बत्सर है कहा, जीवन कौ इतिहास।
चिर जीवन कौ करत है, कहा काल उपहास।।86।।
आवत क्यों चलि देत क्यों, क्यों यह ठेल-पठेल।
क्यों आवागमन कौ, होत रहतु है खेल।।87।।
हिय अकुलायौई रहत, ऊतर मिलत न एक।
मति डोलत विभ्रम निरत, पावत मन न विवेक।।88।।
यदि जीवन है व्यर्थ कौ, समय-बद्ध अभिशाप।
तब फिर यह कैसी बिथा, तब क्यों यह सन्ताप।।89।।
देखत ही देखत मुँदे, वे अनियारे नैन।
मौन भये छिन एक में, सलज रसीले बैन।।90।।