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दोहा सप्तक-03 / रंजना वर्मा
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आतुर कली लुटा रही, अंतर का मकरन्द।
भ्र्म भँवरों की गुनगुन रचे, नूतन प्रीति प्रबन्ध।।
यादों की अटखेलियाँ, वादों के संवाद।
जीवन रस झरने लगा, स्वप्न दे रहे दाद।।
ठहर चबेना चाबी लो, पियो सुधा सम नीर।
स्नेह - रंग से है रँगी, गाँवों की तस्वीर।।
अधर अबोले यदि रहें, लगें बोलने नैन।
मन कैसे निज दुख कहे, उसके नैन न बैन।।
आंखों में आँसू रखो, रखो हृदय में घाव।
है निष्ठुर दुनियाँ बड़ी, इसे न इनका चाव।।
जग अच्छा है या बुरा, फिर भी इस से प्यार।
कितना है निश्छल सरस, बच्चों का संसार।।
मिट्टी में गहरी जड़ें, तपती सिर पर धूप।
मृदुल कामना सी कली, खिलते फूल अनूप।।