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दोहा सप्तक-28 / रंजना वर्मा
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भीख कभी मत माँगिये, रहिये नित सन्तुष्ट।
सदा रहे संतोष तो, हो न विधाता रुष्ट।।
चित्र देख कर मित्र का, मन हो रहा प्रसन्न।
आनन्दित अति प्राण हैं, मन सुख से सम्पन्न।।
हो उद्धार समाज का, जीवन सुख सम्पन्न।
सुखी रहें सब लोग हो, कोई नहीं विपन्न।।
हो जाती अवरुद्ध जब, जीवन की हर राह।
पागल मन है ढूँढता, कोई नया प्रवाह।।
है कुनैन उत्तम दवा, ज्वर हो जाता दूर।
तन मन हो जाता सुखी, खुशियों। से भरपूर।।
लगती कभी कुनैन सी, कड़वी कोई बात।
होती पर औषधि सदृश, जीवन की सौगात।।
घोल लिया है कण्ठ में, ज्यों मिश्री का चूर्ण।
वाणी जो मुख से कहे , हो मिठास से पूर्ण।।