दो शे’र / अली सरदार जाफ़री

हर मंज़िल इक मंज़िल है नयी और आख़िरी मंज़िल कोई नहीं
इक सैले-रवाने-दर्दे-हयात१ और दर्द का साहिल कोई नहीं

हर गाम२ पे ख़ूँ के तूफ़ाँ हैं, हर मोड़ पे बिस्मिल३ रक़्साँ हैं४
हर लहज़ा५ है क़त्ले-आम६ मगर कहते हैं कि क़ातिल कोई नहीं



१.जीवन की व्यथाओं का सैलाब २.पग ३.घायल ४.तड़प रहे हैं ५.क्षण ६.सर्वसाधारण का वध

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