प्रात समय है सूर्यरश्मियाँ सतरंगी अतिसुन्दर
थिरक रही है पर्णकुटी पर अतिप्रसन्न हो आकर,
चमक रहा स्फटिक शैल-सा स्वच्छ नदी का तीर।
कलकल, छलछल कर लहराता प्रतिपल निर्मल नीर॥
महा विटप वत के नीचे है बनी वेदिका ऊँची।
गुग्गुल-अगरु-हवन-गंध से जो रहती है सींची॥
जहाँ सहज ही दिव्य सुगन्धित चलता मलय समीर।
दर्भासन को बिछा वहाँ पर बैठे हैं रघुबीर॥
जहाँ तलाबों के सरसिज के सुमन-अनूप खिले हैं।
जहाँ कुञ्ज की तरह परस्पर अगणित विटप मिले हैं॥
जहाँ गुलाब और केवड़ा के फूल खिले अनमोल।
जहाँ पपीहा-हंस-मोर के गुंजित हैं मृदु बोल॥
जहाँ भ्रमर विकसित प्रसून पर मडराते रस पीते।
जहाँ विचरते निडर भयानक व्याघ्र, भेड़िये, चीते॥
वहीं प्रिया के संग राम बैठे हैं श्याम शरीर।
गूँज रही है मेघ सदृश उनकी वाणी गंभीर॥
" प्रिये! बता दो वन में रहते कितने दिन हैं बीते?
हम वनवासी बने श्रांत, माया-ममता से रीते॥
लेकिन कितनी शांति यहाँ है! कितना है संतोष।
यहाँ नहीं है भोग लालसा, नहीं किसी पर रोष॥
भोले-भोले ये वनवासी नित्य विविध फल लाते।
पहले हमें खिलते साग्रह तब अपने हैं खाते॥
कितने सरल और कोमल हैं गुह, निषाद औ' कोल।
कितने हैं निष्काम, अकलुषित इनके अटपट बोल॥
परम तपस्वी ऋषि-मुनियों का दर्शन हमको मिलता।
मन-तड़ाग में ज्ञान-भक्ति का सरसिज अनुपम खिलता॥
जग से एक विरक्ति भावना न जाने क्यों जागी?
सत्य कह रहा सबसे उत्तम हैं ये तपसी-त्यागी॥
" किन्तु देखती मैं तपियों का जीवन नहीं निरापद।
इनको भी पीड़ित करते हैं दुष्ट, तमीचर श्वापद॥
ये निस्पृह मानव-समाज के उन्नायक अविकार।
बने लक्ष्य आतंकवाद के सहते नित्य प्रहार॥
जिन्हें नहीं जग से कुछ लेना, केवल देना देना।
दृढ़प्रतिज्ञ अंधड़ में जिनको तपः तरी है खेना॥
ऐसे जो निर्भ्रांत मनस्वी औ' जो परम उदार।
उनको भी हैं दुष्ट सताते, कैसा जग व्यवहार! "
" सच है सुमुखि! तपोबल पूरित ऋषि भी आज दलित हैं।
दण्डित नहीं दुष्ट को करते ऐसे क्षमा-छलित हैं॥
क्षमाशीलता के कारण जब पौरुष की तलवार।
कुंठित होती, तभी मनुज पर होता अत्याचार॥
आत्म-सुरक्षा दंड-शक्ति पर ही निर्भर करती है।
दण्ड-शक्ति का सदन सम्पदा चेरी बन भरती है॥
रीपु, ऋण, रोग तीन का करना अन्त सदैव अभीष्ट।
विमल विवेक-विहीन दया से होता घोर अनिष्ट॥
दण्ड-विहीन दया है प्रेयसी! प्राण-रहित काया है।
तेज-विहीन अहिंसा निश्चय हिंसा कि छाया है॥
शौर्य-हीन आदर्श व्यर्थ है, त्याग-हीन स्म्प्रीति।
ओज-हीन औदार्य निरर्थक, अनुशासन बिन निति॥
जगत नहीं है ठीक, वहाँ पर बड़ी विषमता फैली।
आज स्वच्छ चादर भी दिखती लोगों को मटमैली॥
निष्कलंक जो उसे मानते लोग यहाँ सकलंक।
निरपराध कारागृह में है, अपराधी निः शंक॥
जो अनीति का पालन करता, वही न्याय की प्रतिमा।
जो अविचारी, नीच, क्लीव, उसकी ही फैली महिमा॥
जो न किसी का सुख सह सकता वही अकल्प सहिष्णु।
आज सभी में स्पर्धा है, कहलाते सब विष्णु॥
जो शोषण कर विभव बटोरे व्ही बना है राजा।
उसका ही गुणगान हो रहा, बजे द्वार पर बाजा॥
धन-दौलत के लिए किया करता जो अकथ अनर्थ।
जन-धन का अपहर्ता ही कहलाता आज समर्थ॥
जो नृशंस न्र वही आज सच्चा मानव कहलाता।
लोगों से सम्मान प्राप्त कर सुख से समय बिताता॥
बना नियामक और नियन्ता, रीती-निति-मर्मज्ञ।
क्षमा नहीं कर सकते लेकिन, उसको शिव सर्वज्ञ॥
आज आततायी पुरुषों की होती अनुपम पूजा।
वे ही बने देव, उनसे अब पूज्य न कोई दूजा॥
असहनीय पीड़ा शती है जनता बन निष्प्राण।
नहीं जानती उसका कैसे कौन करेगा त्राण॥
शासक वर्ग विलास-सिन्धु में डूब रहा नख-सिर से।
कर्म-च्युत हो अनय कर रहा निति-नियम अस्थिर-से॥
सत्ता सम्पति और शक्ति की देख घिनौनी चाल।
ऐसा लगता त्रेता में ही आ पहुँचा कलिकाल॥
कर्मीवृन्द स्वतंत्र, नित्य उत्कोच ग्रहण करता है।
बंदीगृह में आज सत्यवक्ता केवल मरता है॥
असहनीय है असहनीय, यह यंत्र-मन्त्र औ' तन्त्र।
राष्ट्र और जनगण विरूद्ध यह है भरी षड्यंत्र॥"
" सच कहते हैं नाथ! पाप के प्लावन की यह हद है।
मर्यादा को तोड़ भ रहा षड्यंत्रों का नद है॥
रहते समय नियंत्रण इस पर करना अति अनिवार्य।
और नहीं तो यही लोक द्वारा होगा स्वीकार्य॥
न्याय-पक्ष जब-जब निष्क्रिय हो निबल-भीरु होता है।
अनय पक्ष तब-तब प्रचण्ड हो नाश बीज बोटा है॥
अनय रोकने में होता जब धर्म विवश-लाचार।
तभी देश की जनता पर होता है अत्याचार॥"
" सच कहती हो प्रिये! धर्म ही इसे रोक सकता है।
सत्तासीन मदान्ध मनुज को वही टोक सकता है॥
किन्तु धर्म की शक्ति चाहिए, आत्मा को ज्यों देह।
मानवता कि तभी सुरक्षा होगी निःसंदेह॥
आज धर्म को देख रहा हूँ मैं होते अवहेला।
धर्म-द्वेषियों का सत्ता के पास लगा है मेला॥
जिहें धर्म का मर्म न मालूम पाप-कर्म-निष्णात।
उनके मुख से निकल रही है आज धर्म की बात॥"
" धर्म नहीं हे नाथ! आजकल धर्मान्धता प्रबल है।
इसके कारण धर्म-द्वेषियों को नित मिलता बल है॥
धर्मान्धता प्रबल जब होती, धर्म-द्वेष हो क्रूर।
धर्म-तत्व को मानव मन-से कर देता है दूर॥
क्या है धर्म? इसे कह पाना उतना सरल नहीं है।
जितना सरल दीखता सचमुच उतना तरल नहीं है॥
एक तत्व ही कहीं पुण्य है और खिन पर पाप।
खिन सत्य सर्वोच्च धर्म है, कहीं सत्य अभिशाप॥
कहीं क्रोध है पूज्य, कहीं पर वह अपूज्य पातक है।
कहीं क्षमा स्तुत्य, कहीं पर क्षमा घोर घातक है॥
कहीं अहिंसा परम धर्म है, कहीं वही अपकर्म।
बड़ा कठिन कहना लगता है कहना क्या है धर्म-अधर्म॥"
" सजनि! देश या काल, परिस्थिति, व्यक्ति, विशेष विषय से।
जहाँ धर्म में मतिभ्रम होता, वह होता संशय से॥
विविधि शास्त्र-अनुशीलन, चिंतन का लेकर आधार।
कभी-कभी करना पड़ता है धर्माधर्म विचार॥
बाह्याचार धर्म है कहना बहुत बड़ी जड़ता है।
इसमें धर्म-तत्व-दिनमणि का बिम्ब नहीं पड़ता है॥
प्राणिमात्र की दुख-निवृति हो, यही धर्म का ध्येय।
यही धर्म का मूल तत्व है, यही श्रेय का प्रेय॥
शोषण नहीं, सुपोषण जिससे होता धर्म वही है।
जिसमें कलकल दया प्रवाहित हिंसा तनिक नहीं है॥
जिससे होता प्राणिमात्र के जीवन का उत्थान।
वही धर्म होता है जिससे जग भर का कल्याण॥
जहाँ ह्रदय में द्वेष नहीं है, मन में नहीं जलन है।
जहाँ शांति, विश्वास, शील का चरों और चलन है॥
दान, ज्ञान, तप, त्याग, सुसंयम करते जहाँ प्रकाश।
वहीं सहज स्वीकार्य धर्म का होता नित्य निवास॥
जहाँ मनुज की बुद्धि शुद्ध है, विमल विवेक अचल है।
सत्य, प्रेम, शुचिता, ऋत, ऋजुता, शाश्वत अम्ल, धवल है॥
जहाँ सजीली क्षमा, अकारण नहीं जहाँ पर क्रोध।
वहीं समझ लो आर्य धर्म है, न्याय-निति अविरोध॥
जो दूसरे धर्म में बाधक वह कुधर्म कहलाता।
उसका नहीं अभ्युदय-निःश्रेयश से रंचक नाता॥
सत्य-जन्य सदधर्म सदा है भेद-सहिष्णु अभेद।
यह चिन्मय, आनन्दपूर्ण है, इसमें तनिक न खेद॥
यद्यपि गूढ़ धर्म की गति है फिर भी नहीं अगम है।
आगम, निगम, आर्षचिन्तन, सुज्नों से सदा सुगम है॥
आर्य धर्म में घृणा नहीं है, केवल प्रेम प्रसार।
सर्वभूत-कल्याण-कामना, परहित-पर-उपकार॥
आर्य धर्म मन-वचन-कर्म से हिंसा तनिक न करना।
दुष्ट-दमन के लिए कमर कस अभय खड्ग ले फिरना॥
दण्डनीय है स्वजन अगर वह करता है अपराध।
सभी समान न्याय के सम्मुख, नहीं कोई अपवाद॥
' प्रिये! एक न एक दिवस नीचों का नाश अटल है।
होगा उनका राज्य नेत्र में जिनके करुणा-जल है॥
अन्यायी का राज्य देखना मैं करके निर्मूल।
धरती के कर में रख दूँगा तपस-त्याग का फूल॥"
" आर्य-पुत्र! इस त्याग तपस्या से न बड़ा कोई है।
किन्तु अमानवता में बेसुध यह संसृति सोयी है॥
सागाराम्बरा वसुंधरा पर जब तक विषधर नाग।
आग बुझेगी नहीं, कभी न जाग सकेगा त्याग॥"
खा राम ने, " ठीक कह रही हो सुभगे! कल्याणी!
जो अनार्य, वे क्या समझेंगे वेड-विहित-वर वाणी॥
वे क्या जाने क्या होते हैं सत्य, तोष औ' त्य्याग।
जिनके भीतर सतत प्रज्वलित भौतिकता कि आग॥
किन्तु राम की बार-बार कहने की नहीं प्रकृति है।
एक बार जो कहा वही बस उसका अथ है, इति है॥
मिटा धरा से दुराचार को धर्म करेगा राज।
जीवित नहीं बचेगा भू पर दुर्मति, दुष्ट-समाज॥
कभी नहीं राक्षसी वृत्ति निर्बाध पनपने दूँगा।
आर्य संस्कृति को न कभी इस तरह कलपने दूँगा॥
नहीं चाहिए कभी मनुज को सीमातीत विराग।
उसे चाहिए शौर्य-वीर्य की धकधक जलती आग॥
क्षीरोज्ज्वल स्फटिक शैल-सा जिनका निर्मल मन है।
जिनको प्यारा स्वजन नहीं, सारा समाज-जन-जन है॥
जिनके अंदर धैर्य, पराक्रम, अपरिग्रह, अनुराग।
उन्हें चाहिए विश्ववंद्य पौरुष की जलती आग॥
पौरुष से ही कार्य सिद्ध होते यह मेरा मत है।
दैन्य-प्रदर्शन एकमात्र कापुरुष जनों का व्रत है॥
कामासक्त नहीं कर सकता कोई कर्म सुसिद्ध।
निर्बल कौन? वही नर जो है नारि-नयन-शर-बिद्ध॥
मुझे मिला संतोष विपिन में, चाह न कुछ पाने की।
नहीं लालसा श्री-विहीन इस जग को अपनाने की॥
प्यार जिसे है सुलभ वही संसृति में सुखी मनुष्य।
उसका वर्तमान अच्छा है, उसका मधुर भविष्य॥
राज्यश्री-सी तू सँग में, फिर क्या वैभव लूँगा।
पाकर वैभव भी न भोग कर सकता पर को दूँगा॥
पितु की आज्ञा पूर्ण करूँगा, राज-पाट है व्यर्थ।
क्या कोई स्तुत्य बना है क्र के कुटिल अनर्थ?
हम वन में हर वस्तु काम की अनायास पा जाते।
रोज गहन में जाकर लक्ष्मण नयी वस्तु हैं लाते॥
सही बताओ किसी वस्तु का होता यहाँ आभाव?
कितना सहज और ममतामय लक्ष्मण का वर्ताव॥
धन्य सुमित्रा जी माता हैं, जिनने सूत को भेजा।
'बड़े बन्धु की सेवा करना' चलते समय सहेजा॥
'मातु-पिता हैं राम-जानकी इनके रहना साथ।'
ऐसी ममतामयी जननी के आगे झुकता माथ॥"
" चिर प्रणम्य हैं मातु सुमित्रा, सच कहते हैं स्वामी!
उनके कारण ही प्रिय देवर हुए बन्धु-अनुगामी॥
शेषनाग क्या कह पायेंगे उनका गौरव-गाथ।
मुझे रुलाती रोज उर्मिला कि स्मृति हे नाथ॥
राज-पाट-सुख-छोड़ मनस्वी देवर वन में आये।
यहाँ हमारी सेवा में रत रहकर समय बिताये॥
परम बीतरागी, से अनुदिन त्याग त्रिया-सुख-इच्छा।
अहो! विपिन में झेल रहे दुःख, विधि की विकट परीक्षा॥
कौन टाल सकता है विधि के विविध यातना-तम को?
जो कुछ लिखा ललाट-पत्र पर और कर्म के क्रम को?
सब उसके सम्मुख हैं निर्बल, सब हैं निपट अजान।
उसकी ही दुर्दान्त शक्ति जग में छिटकी अम्लान॥"
" दूर भगाते, भाग्य प्रियतमे! जिनमें पौरुष बल है।
जिनमें सहनशीलता निरुपम और शक्ति उज्ज्वल है॥
हमें राज्य का लोभ नहीं है, नहीं भोग से मोह।
तुच्छ वास्तु के लिए उचित क्या करें बन्धु से द्रोह॥
राज्य-विभव तो मात्र उसी माया के ही सहचर हैं।
इन्हें जानते केवल वे ही जो विवेकमयनर हैं॥
जो माया के निठुर बंध को पल में देते तोड़।
वे दुर्भेद्य भाग्य-पर्वत को निश्चय सकते फोड़॥
वह तो उज्ज्वल और अकलुषित, बिना रूप का, सम है।
वह तो व्याप्त विश्व-जीवन में, उसे न पाना भ्रम है॥
वह शास्वत, निर्वेद, अगोचर, जगत उसी की छाया।
सृष्टि नाचती नियति जो बर्बर, उसकी ही है माया॥
प्राचीन वह, अर्वाचीन भी, भूमा वही, दहर है।
वही सगुण है, निर्गुण भी है, सागर वही, लहर है॥
उससे भिन्न नहीं कुछ भी है, , वह दृष्ट-दृष्टव्य।
वही ज्ञान, ज्ञातव्य वही है, श्रोता औ' श्रोतव्य॥
इस परिवर्तनशील विश्व में स्थिर किसको मानें?
कब वैभव का मन्द्र मोह-मदिरा छिप जाय न जाने!
हम 'उसके' हैं अंश, हमें जग में करना है नाम।
वीर पुरुष यश के लोभी हो तप करते निष्काम॥
जो वनवास दिया माता ने मुझको वही भला है।
माता को हो कष्ट, ताप यह किसको नहीं खला है?
भाई ही तो विभव-भोगते, मुझको है संतोष।
मुझे विमाता कैकेयी पर, तनिक नहीं है रोष॥
सीमाबद्ध अतीत, असीमित है भवितव्य भुवन में।
भला निराशा हेतु कहाँ है ठौर मनुज जीवन में?
आशा का प्रदीप कर में ले, भूल सभी अभियोग।
शक्तिशील करते अलभ्य को पाने का उद्योग॥
हम तो दुख सहर्ष सह लेंगे, दिन जाते हैं बीते।
किन्तु कभी शृंगार न तूने किया यहाँ हे सीते!
आज तुम्हे अपने हाथों से आओ तनिक सजाऊँ।
प्रेम-निकेतन में न्यारा छवि का मैं दीप जलाऊँ॥
कंचन तन, कौशेय वसन, उत्फुल्ल कमल-दल-लोचन।
जवाकुसुम से अधर मनोहर, गति रति-गर्व-विमोचन॥
आओ तुम्हें सजाऊँ जैसे धरती को मधुमास।
तुम तो मूर्तिमती श्रद्धा हो, मैं मानो विश्वास॥
समयोचित वैराग-राग यदि वय के संग-संग मचले।
तो नर के भावानुभाव से नित्य नया रस निकले॥
समय और वय की माँगों की पूर्ति प्रिये! अनिवार्य।
जीवन तभी सरस होता है काम्य, सतत स्वीकार्य॥
सीताजी मुस्काकर बोलीं-" प्राण-नाथ! क्या कहते?
मेरा भी शृंगार घटा है भला आप के रहते?
पति ही तो पत्नी का भूषण, वही है शृंगार।
बस दोनों को एक दूसरे का मिलता हो प्यार॥"
" नहीं, नहीं, यह तो अकाट्य है, फिर भी मन में मेरे।
यही लालसा आज सजाऊँ गहने तन पर तेरे॥
तुझको छवि की मूर्ति सदृश प्यारी! मैं सकूँ निहार। "
इतना कह क्र राम सिया का करने लगे शृंगार॥
दो शिरीष के फूल कान में सीता के पहनाये।
फिर ले मालति माल हाथ में कंगन सुघर सजाये॥
पुनः राम ने एक अनोखी निशा माधवी-माला।
दिव्य हार सम स्लज सिया कि शुभ ग्रीवा में डाला॥
चन्द्र-धवल मस्तक पर अनुपम हरिचन्दन का टीका।
मानो हिमकण मधुर झलकता उज्ज्वल कमल-कली का॥
और लटकते स्कन्धों पर वे घुंघराले केश।
कुछ क्षण खोये रहे देखकर राम सिया का वेश॥
देख अलौकिक प्रेम राम का सीताजी मुस्काई।
सलज नयन अवलोक स्वामि-तन पुलकी, फिर सकुचाई॥
तभी वहाँ आ गया शक्रसुत धर कर काक शरीर।
मन-ही-मन यों लगा सोचने होकर अधिक अधीर॥
"अहो! राम यह राज्य-त्याग, वन में भी मोद मनाता।
पर, इसका पागल प्रमोद मुझको है तनिक न भाता॥
भाई को अन्यत्र भेजकर खुद स्त्री के संग।
मौज क्र रहा अरे! अभी मैं करता हूँ रस-भंग॥
बाहु-वलय में लिए प्रिय को बैठा सीना ताने।
तीन लोक का अहो नियन्ता आज स्वयं को माने॥
ठहरो, अच्छा होगा सिय के पग में मारूँ चोंच।
कुछ क्षण ही के लिए व्याप्त हो इसके मन में सोच॥
मेरे जीते कभी नहीं यह राम सुखी रह सकता।
कभी नहीं सौभाग्य-त्रिया-सुख जीते जी लह सकता॥
इस निष्कासित का ऐसा सुख कभी न सकता देख।
अभी सिया के चरणों में खींचता चंचु की रेख॥
जैसा सुना कहीं उससे भी बढ़कर है वैदेही।
पूर्णचन्द्र-सा वदन मनोहर, मदन-दलन, स्नेही॥
देव, दनुज, गंधर्व, किम्पुरुष, यक्ष, रक्ष में वाम।
सिया सरीखी नहीं मिलेगी तन्वंगी अभिराम॥
पवन-प्रकम्पित-पद्म-पत्र-सम चल अपांग-छवि छलके।
गालों पर गौरव गुलाल मनसिज मुस्काता मलके॥
कानों में अव्याज मनोहर हिलते सजल शिरीष।
शर-संधान किये बैठा है मानो मदन खबीस॥
लीला लोल विलास नयन का मुझको कसक रहा है।
बंकिम भृकुटि, विशाल हार ग्रीवा में लटक रहा है॥
कोमल सरल कपोल-पालि पर राम का अवनत आनन।
जला रहा है मुझे, जलाता दावानल ज्यों कानन॥
चूम रहे भुजमूल झूल कर केश असंयत काले।
कुछ कहते उन्नत उरोज, ये अधर सुधारसवाले॥
फूट रही उद्दाम वासना धर सीता का रूप।
पान कर रहा जिसे राम मकरध्वज का प्रतिरूप॥
चन्द्र-कांति-सी अंग-कांति है, रोम रहित तन कोमल।
जिसके सम्मुख आह! उर्वशी भी हो जाती ओझल॥
सहजन्या, मेनका, घृताची, रम्भा भी श्री-हीन।
मेरा मन भुजंग-सा नत फन सुनकर ऐसी बीन॥
सीता के तन का विकास लय-क्रम से सधा हुआ है।
अंग-अंग में यौवन जिसमें मनसिज बॅधा हुआ है॥
मुझे चाहिए कटिक्षीणा सीता का श्वासोच्छ्वास।
काम-विवर्द्धक कल कपोल की लाली का मृदु पाश॥
चढ़ी हुई ज्यों नदी उफनती तन में ज्यों तरुणाई।
चरणों में पावक-प्रसून की झलक रही अरुणाई॥
अप्सरियों के कुच-कलशों का कुंकुम है बेकार।
मुझे चाहिए जंक-सुता का अधर-चषक साभार॥
पञ्चबाण के पञ्च बाण मोहन, शोषण, उन्मादन।
छिपे इन्हीं मदमत्त नयन में स्तम्भन, संतापन॥
श्यामा के प्रसन्न वैभव का यदि न किया स्पर्श।
जीवन-भोग रोग सम होगा और शोकमय हर्ष॥
अहा! चतुर्दिक इन्दीवर, अरविन्द खिले हँसते-से।
नव मल्लिका विहँसती जिसमें मयन-नयन फँसते से॥
आम्रमंजरी की सुगन्धि से पुलकित है परिवेश।
शोक मिटाता-सा अशोक तरु, देता प्रिय सन्देश॥
मन-मंथन कर रहा निरंतर आकर मन्मथ मेरा।
मेरे अंग-अंग पर जैसे है अनंग का डेरा॥
कामरूप को काम सताता, यह दर्पक क्र दर्प।
बार-बार दस रहा ह्रदय को ज्यों मतवाला सर्प॥
अहा! राम से सिया सलोनी ऐसे चिपट गई है।
जैसे जल्द खण्ड से सहसा विद्युत लिपट गई है॥
कंकण-क्वणन-रहित हाथों का मुझे चाहिए ताप।
इन्दु-विनिन्दक मुख-मण्डल की गर्म-गर्म-सी भाप॥
कैसे करूँ निवारण, वारण यदि मन बना हुआ है?
सरस काम-वासना-पंक में नख-शिख सना हुआ है॥
मन-मतंग जा रहा जहाँ पर जाने दूँ अभिराम।
करने दूँ सीता-सरिता में अवगाहन अविराम॥
बड़ा सुअवसर आज मिला लक्ष्मण भी यहाँ नहीं है।
और राम की प्राण-चेतना सुख में डूब रही है॥
इसी समय आघात करूँगा तभी बनेगी बात।
कार्यों में विलम्ब करने से बढ़ते हैं उत्पात॥
बार-बार जीवन में अवसर मिलता नहीं किसी को।
जो इससे कुछ लाभ उठाता ज्ञानी कहो उसी को॥
अवसर से जो कार्य न करते खुद पर नहीं प्रतीति।
उन मूर्खों के लिए समझ लो विधि ही है विपरीत॥
लक्ष्मण ही है परम उग्र, अतिशय प्रचण्ड बलशाली।
उसकी आँखों में प्रकोप की स्थिर रहती लाली॥
उसे देखकर मैं रहता हूँ मन में तनिक सशंक।
इसके शौर्य-सूर्य के सम्मुख मेरा तेज मयंक॥
बल से कभी नहीं पा सकता मैं इस सुमुखि सिया को।
दो हथेलियों बीच सुरक्षित इस सौन्दर्य-दिया को॥
क्यों न इसे मैं छल से छूकर निज मन कर लूँ शांत।
बल से नहीं काम यदि चलता तो छल ही निर्भ्रांत॥
बल औ' विनय जहाँ असफल हैं, सफल वहाँ छल होता।
राज-निति औ' प्रणय-प्रीति में सब कुछ जायज होता॥
वैसे भी परोक्ष-प्रिय होते देव-परम विद्वान॥
प्रत्यक्षता पंथ में पैदा करती है व्यवधान॥
लेकिन मन में कुछ शंका हो रही अचानक मेरे।
प्रलय-काल की विकत घटा मनो मुझको है घेरे॥
तन कम्पित है, मन उद्वेलित, कहीं गया यदि चूक।
तब तो राम-बाण कर देंगे, इस तन को शतटूक॥
देखा मैंने राम तेज को जिसने शिव के धनु को
तोड़, अचानक डाल दिया था विस्मय में त्रिभूवन को।
छिपा वहाँ मैं भी बैठा था, धर मानव का रूप।
परशुराम ने कहा-' राम, तुम हो देवों के भूप॥
विकट तड़का के मस्तक को इसी राम ने फोड़ा।
कौशिक मुनि का यज्ञ कराकर नाम किया न थोडा॥
बिना बात के किसी व्यक्ति से उचित नहीं है वैर।
अन्यायी की तीन लोक में खिन नहीं है खैर॥
इसी राम ने पतित अहल्या का उद्धार किया है।
देवराज-मम पिता इन्द्र को निन्द्य करार दिया है॥
शची-शक्र का श्रेष्ठ पुत्र मैं मेरा नाम जयन्त।
मुझ में अपरम्पार शक्ति है, मेरा वीर्य अनन्त॥
मैं हूँ अमर, राम हैं नश्वर लेकिन सुखी यही है।
अम्बर हुआ पराजित जैसे जीती हुई मही है॥
शची-शक्र का महावीर सूत मैं दुर्जेय जयन्त।
मेरे शासन के अधीन यह सृष्टि स्वर्ग-पर्यन्त॥
जो न पिता कि मान-हानि का बदला पुत्र चुकता।
वह क्यों नहीं गर्भ में अपनी माता के मर जाता॥
मैं हूँ नमुचि-जम्भ-बल-सूदन-पुत्र प्रसिद्ध महान।
मुझे पिता का वैर शोधना, लौटाना सम्मान॥
पौलोमी का पुत्र पातकी पाप-रूप अतिचारी।
उसे हमेशा प्रिय लगती थी पर-सम्पत्ति, पर-नारी॥
उसने खा ह्रदय से अपने-" मत होओं भयभीत।
किस्में इतनी शकरी सकेगा जो सुरपति को जीत?
क्या सामर्थ्य राम में पगले! जो तू छोटा होता।
कायरता का बोझ शीर्ष पर व्यर्थ आज क्यों ढोता?
एक नहीं सैकड़ों राम से हो मत तनिक हताश।
क्या होगा वह सफल, नहीं जिसको निज पर विश्वास॥
मूर्ख! भीरुता है यदि तुझ में, तो कुछ नहीं करेगा।
कायर ही की तरह रोज कुत्ते की मौत मरेगा॥
धीर-वीर इतना कार्यों में करते नहीं विचार।
फिर वह जिसका निखिल सृष्टि पर हो पूरा अधिकार॥
उसको इतना बुद्धि-तर्क बोलो अच्छा लगता है?
होगा क्या वह सफल जो पहला पग रखते डरता है?
समय नहीं है त्यागो सत्वर अपने व्यर्थ विचार।
सद्य प्रफुल्लित हो प्रवीर! दुश्मन पर करो प्रहार॥
मैं हूँ देव, मनुज की नारी मुझको रहे अलभ क्यों?
अगर प्रज्वलित रूप-शिखा तो मैं न बनूँ शलभ क्यों?
संदेहों से सदा हुआ करता संकल्प निरीह।
मैं सुख का अविकल अभिलाषी मैं क्यों बनूँ अनीह॥
सारे श्रेष्ठ रत्न का आश्रय अमरावती कहाँ है?
सीता जैसा महारत्न यदि अब तक नहीं वहाँ है?
मुझे चाहिए सीता का बस बाहु-वलय-अभिसार।
संसृत के इस दिव्य रत्न पर अपना चिर अधिकार॥
इष्ट वस्तु की प्राप्ति हेतु करते समर्थ श्रम भारी।
श्रम से खुलती है समस्त रत्नों की दिव्य पिटारी॥
पाना है यदि इष्ट वस्तु तो जल्दी कर उद्योग।
उद्यम से सब कुछ मिलता है भोग हो कि योग॥
यों खुद को समझाकर कौआ उड़ा पास में आया।
लखकर प्रभु का दिव्य रूप निज को ही भूला पाया॥
सीताजी की सुखद गोद में मोद-मग्न श्री राम।
लेटे थे, निश्चिन्त, शांत था मुख-मण्डल अभिराम॥
आह, काक दुष्कर्म निरत, इर्ष्या से फूला-फूला।
निज पितु के वैभव-प्रमाद से निज को भूला-भूला॥
पर-सुख को सह सका न पापी आया प्रभु के पास।
इसी तरह मद होता है जब छाता सत्यानाश॥
आखिर उसने उछल चोंच से सिय के पग में मारा।
आह, सुकोमल उन चरणों से चली रक्त की धारा॥
एक नहीं, यों बार-बार क्र सीताजी पर वार।
रामचन्द्र को मानो उसने दी तीखी ललकार॥
जनक-सुता अकुला उठ बैठीं, घाव लगे थे तन में।
सोचा नयी आपदा कैसे आ टपकी इस वन में॥
उधर काक अपनी करनी पर ऐंठा, रहा अशोक।
रामचन्द्र अपने प्रकोप को नहीं सके तब रोक॥
क्षत विलोक उनकी आँखों से गिरे अश्रु हिमकन-से।
कुछ बेसुध, बेचैन रह गये मन्त्र-मुग्ध न्त्फां-से॥
प्रकृतिस्थ हो रामचंद्र ने शीश उठाया शांत।
कौआ तरु पर दिया दिखाई सुखी, रक्तमय कांत॥
बोले "दुरमति! तुझे अभी दुष्कर्मों का फल देता।
देखूँ इस ब्रहमाण्ड में तेरा कौन सहायक होता? "
शाल वृक्ष की डाल सदृश तब फड़क उठे भुजदण्ड।
और झपटकर उठा लिया झट काल सदृश कोदण्ड॥
दर्भासन से खींच एक तृण बाण बनाया क्षण में।
ब्रह्म अस्त्र से अभिमंत्रित कर तेज जगाया तृण में॥
पल भर में हो उठा प्रज्वलित बड़वानल-सा बाण।
कहा राम ने, " नहीं बचेंगे काक! तुम्हारे प्राण॥
रुको, रुको दुष्कर्मों का प्रतिफल देता हूँ, ले लो।
जिससे कभी न दुस्साहस कर किसी जीव से खेलो॥
दुष्टों को यदि दण्ड न दूँगा फैलेगा दुष्कर्म।
बड़ा भयानक होता है नीचों से पड़ना नर्म॥
देख विकट अन्याय मगर लेते जो क्षमा सहारा।
उन निवीर्य पुरुषों का कोई होता नहीं किनारा॥
सहकर जो अन्याय सदा रहते हैं सरल सुशांत।
उनसे धर्म नष्ट होता है, दुख का बढ़ता ध्वान्त॥
दुष्ट व्यक्ति केवल झुकते हैं प्रबल शक्ति के भय से।
उन्हें सरल करना मुश्किल है नय से, विनय, प्रणय से॥
जो उनका कुछ अहित करे, वह ही उनका शुभचिंतक।
पर-सुख नहीं देख सकते ये दुष्ट सुजन के निंदक॥"
यह कहकर अति क्रुद्ध शीघ्र कानों तक खींच शरासन।
पैरों को एकदम समेट वे बैठ गए वीरासन॥
छूटा बाण महा प्रलयंकर काँपे वनचर जीव।
भगा कौआ अति सभीत, देखने लगे बलसींव॥