भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धधकती आग / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
गीत गाने के लिए मेरे विकल हैं प्राण !
क्षितिज-रेखा पर दिखाई दे रहे हैं
दग्ध उजड़े लोक के ही दाग़,
और चारों ओर धधकी विप्लवी
भीषण मचल कर नाशकारी आग,
दूर हो अभिशाप — प्रस्तुत सृष्टि का वरदान !
असह, देती हैं हिला, पीड़ा पुकारें,
क्रूर-उर-पाषण भी झकझोर,
आदमी का दर्प पागल बन, धुआँ —
ज्वालामुखी-सा फट रहा है घोर,
मिट गया है आज मानव का सकल अभिमान !
देखता हूँ, हो रहा है घोर बर्बर
नृत्य-तांडव, हिंस्र निर्मम ध्वंस,
देखता हूँ, हो रहे हैं राख ज़िंदा
तड़प मानव तोड़कर दम, ध्वंस,
दीखते दीवार पर चित्रित करुण आख्यान !