धर्म : दो कविताएँ
(एक)
कितना बदबूदार गोबर
देने लगी है गाय
लीपे नहीं जा सकते हैं इससे
घरों के आँगन
थोपे नहीं जा सकते
चूल्हे के लिए कंडे
संभव नहीं है बनाना
खेतों की खाद
आकर्षित नहीं करती इसे
बछड़े के रँभाने की आवाज
भूसे की गंध
बैलों की हुंकार
जब चलती है तो
निकलती खुरों से ऐसी आवाज
कि बेचैन हो जाते परिंदे
बदलने लगता है मिट्टी का रंग
डबडबा जाती हैं
इसे देखते ही प्रेमिका की आँखें
अभिशाप में तब्दील हो जाते त्यौहार
और उदास हो जाता है कवि
क्या हो गया है
करुणा की इस कविता को
खिला दिया किसी ने रोटी में कुछ
या लग गई है किसी की नजर
पैदा नहीं होने दी जिसके दूध ने कभी
प्रवृत्तियाँ तामसिक
फिसलन रही हो चाहे जितनी
बचाते रहा हमेशा जिसका सहारा अदृश्य
कभी सोचा न था,
चमकेंगे सींग उसके दूर से एक दिन
खंजर की तरह।
(दो)
इससे पहले कि वह पकड़ता
स्लेट और कलम
उन्होंने लटका दिया
उसकी भाषा के गले में क्रास का निशान
लगा दिया
संस्कारों के माथे पर तिलक
कर दिया शब्दों को अभिमंत्रित
पहना दिया हाथों में
लोहे का कड़ा
कर दिया पूरा मस्तिष्क कुंद
अब हैरान हैं वे,
होना चाहिए था जिसे पाठशाला में
दंगाइयों की भीड़ में सबसे आगे है।
(1990)