धीमे धीमे मुस्कुरा रही है माँ / राजेश्वर वशिष्ठ
उसने उगते सूरज को देखा
आसमान में छितरे बादलों के बीच से,
उषा के कँगूरे पर
लाल चुनरिया ओढ़ कर
धीमे-धीमे मुस्कुरा रही थी माँ !
उसने हरे पेड़ को देखा
असंख्य पीले फूलों से लदे
बरस रही थी मादक सुगन्ध,
समय की सलाइयों पर
वसन्त बुन रही थी माँ !
उसने बहती नदी को देखा
दोनों हाथ फैला कर दौड़ते हुए
बेचैन और उद्विग्न,
बिटिया का रोना सुन कर
नंगे पाँव भाग रही थी माँ !
मैंने देखा
पल-पल आँसू पोंछ कर भी
समय और भाग्य से जूझते हुए,
अनुशासन और संस्कार की कलम से
बेटे का भविष्य लिख रही है माँ !
तुम्हारी खनकती हँसी में
बस गई है माँ
तुम्हारी निस्स्वार्थ करुणा में
रम गई है माँ
तुम्हारी हर भंगिमा से
मूर्त हो रही है माँ !
सुनो, यहीं है माँ
सूरज में, फूलों में,
सुगन्ध में और नदी में
देखो चाँद में भी !
भरोसा रखो
माँ रोज़ झाँकेगी
उगते हुए सूरज की आँख से
हमारी धरती पर
स्नेह रश्मि बिखेरने के लिए !
बस, आज रोना मत दोस्त !