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धीरे-धीरे / मदन कश्यप
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धीरे-धीरे
सब कुछ धीरे-धीरे
वे बेहद इत्मीनान से हैं
न समय की कमी है ना धैर्य की
न झपट्टा मारने की जरूरत है
ना ही किसी उत्तेजक नारे की
इतना धीरे से छीनेंगे
हमारे हाथों के निवाले
कि मुंह खुले के खुले रह जाएंगे
धीरे-धीरे
वे काटेंगे हमारे सीने का गोश्त
इतनी होशियारी से
कि आधी धड़कन सीने में रह जाएगी
आधी गोश्त में चली आएगी
फिर अंतराष्ट्रीय बाजार में
ऊंची कीमत पर बेचेंगे
खून से लथपथ गोश्त
दर्द होगा
लेकिन धीरे-धीरे!