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धूप-छाँव है खुली गदोरी में / कुमार रवींद्र

पीली सरसों
धूप-छाँव है खुली गदोरी में
 
अँजुरी-भर आकाश
हवाएँ नीली खुशबू की
मेंहदी करे हिसाब
न जाने कनखी कब चूकी
 
हल्दी-उबटन धरा
साँस की बंद कटोरी में
 
भोली गौरइया के घर में
चौकी सपनों की
भरे-भरे आँगन में
फिरतीं यादें अपनों की
 
रखती आँख सँभाल
रूप को देह-तिजोरी में
 
ड्योढ़ी पर धर चौक
हथेली हुई गुलाबी दिन
घुंघरू बजे रात चौखट पर
बातें हैं कमसिन
 
पकड़े गये उजास
चाँद की नाज़ुक चोरी में